बचपन

उन बच्चों के आंसूओं में,

उनके कटे-फटे हाथों में,

उन के बेबस चेहरों में,

मैं अपने आप को ढूंढता हूं।

 

जब वो भूख से बिलबिलाते हैं,

जब वो मार खा कर चिल्लाते हैं,

और जब वो रोते हुए सो जाते हैं,

तब मैं भी उनके साथ रोता हूं।

 

मैं ‘बचपन’ खो गया हूं कहीं पर,

उन बच्चों का बचपन….

जिनकी किस्मत में नहीं था,

किसी अमीर के घर पैदा होना।

 

वो, जो भीख मांग रहा है उस चौराहे पर,

और वो, जो ढूंढ रहा है कुछ खाने को, कचरे में,

वो भी, जो काम कर रहा है, उस कारखाने में,

सब बच्चे ही तो हैं, बिना बचपन के…

 

कहां ढूंढूं मैं, अपने आपको?

उन झुग्गी-झोपड़ियों में, जहां खाने को एक दाना नहीं,

या उन चेहरों में, जहां मायूसी के सिवा कुछ नहीं,

नहीं हूं मैं वहां, जहां मुझे होना चाहिए।

 

ना ही मैं उनके पास तब हूं,

जब वो ईंट के भट्टों में जलते हैं,

ना ही मैं उनके साथ तब हूं,

जब वो अंधेरी गलियों में भटकते हैं।

 

मैं तो बस खड़ा हूं एक ओर,

और निहार रहा हूं उन नन्हें बच्चों को,

जो छुपाए है दिल में मजबूरियों का दर्द,

पर फिर भी हालातों से लड़ते चले जाते हैं।

 

क्या कभी मिलेगी, इन्हें वो आजादी,जिससे इन्हें प्यार है?

या रोशनी की वो एक किरण, जिसका इन्हें इन्तजार है,

क्या कभी हटेगा, इनके कन्धों से, बोझ जिम्मेदारियों का?

क्या कभी मिलेगा, इन्हें वो बचपन, जिसके ये हकदार हैं?

क्या कभी मिलेगा, इन्हें वो बचपन, जिसके ये हकदार हैं?

 

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